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बुधवार, 27 दिसंबर 2017

मानसिक अस्पृश्यता

  आज से कुछ 6 महीने पहले की बात है। मैं नेहरू युवा केन्द्र के अपने साथियों के साथ जबलपुर  में नवीन युवा स्वयं सेवक प्रशिक्षण शिविर में था। अगले दिन हमे विजिट में जाना था, प्रशिक्षण के दौरान ये हमारा पहला विजिट था।सुबह लगभग 7 बजे बस आई व सभी जिलहरी घाट के लिये निकल पड़े। सभी मित्रों के साथ मौज-मस्ती करते हुऐ, कुछ समय में हम जिलहरी घाट पहुँच गये।
  चारों तरफ हरियाली भरा प्राकृतिक वातावरण व कुछ दूरी पर मंदिर से आ रही घंटे की टन-टन की ध्वनि वातावरण को लुभावना बनाते हुये मन में उत्सुकता को बढ़ा रही थी।
  अपनी नटखट टोली के साथ हम सब दौड़ पड़े मंदिर की ओर पर, पीछे से आती हुई आवाज ने हमे रोक दिया। वो नवीन सर थे, जो हमें अपने साथ चलने के लिए बुला रहे थे, हम अपने कदम वापस ले सर के साथ चल पड़े।
  आगे जाकर हम घाट पर जा पहुँचे। माँ नर्मदा का यह घाट बड़े-बड़े वृक्षों से घिरा व अपने शांत स्वरूप में बहती हुई वो शीतल धाराएं माँ नर्मदा के  प्राकृतिक सौंदर्य में वृद्धि कर रही थी।
  हमें सर के सख्त निर्देश थे कि कोई भी नदी में नीचे न जाये पर माँ नर्मदा की उन पावन धाराओं व उनके स्पर्श से होने वाली उस अद्भुत अनुभूति को पाने से भला कोई हमे ज्यादा देर तक कैसे रोक सकता था।
  छुपते-बचाते आखिर हम घाट पर उतर ही गये, अपने हाथो में माँ नर्मदा के जल की जलांजलि लेते हुये माँ नर्मदा के चरणों को मानसिक प्रणाम कर सभी के साथ माँ नर्मदा की आरती में सम्मिलित हुये।
  आरती के बाद अब बारी थी श्रम दान की जिसके लिए ये विजिट रखा गया था। सभी को निर्देश थे कि सेल्फी लिये बिना श्रम दान करे, पर आज के युग में कोई युवाओ के सर से सेल्फी का बुखार उतार सकता है भला।सभी सर की नजरों से बचते हुए सेल्फी लेने में मग्न थे, ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो कोहिनूर हीरे की चोरी की जा रही है।
  कुछ समय बाद ये सेल्फी का बुखार कम हुआ और हम सभी घाट की सफाई में जुट गये, कोई गाजर घास का गट्ठा उठा भाग रहा था तो कोई झाड़ू लगा रहा था। जो पहले गंदकी देख कर मुँह बना रहे थे, अब बड़ी ही सहजता के साथ सफाई में सबका हाथ बटा रहे थे, न हाथ गंदे होने का कोई डर था, न कपड़े गंदे होने का। आखिर कार सबने मिलकर जल्दी ही घाट की अच्छे तरह से सफाई कर दी।
  सभी के चहरे प्रसन्न दिख रहे थे ओर क्यो न हो आखिर आज सबने श्रम दान किया था। सभी ने हाथ पैर धोया औऱ सर के साथ मंदिर की ओर चल दिये। मंदिर में शिव जी का दर्शन कर सभी वापिस मंदिर प्रांगण में पहुंचे।  दोपहर के 1 बजे थे, भोजन का समय हो चला था, यही सबके भोजन की व्यवस्था की गई थी। सभी मित्रों के साथ मैं भी भोजन की पंक्ति में बैठ गया। भोजन शुरू होते ही न जाने कहाँ से मेरे मस्तिष्क पटल पर एक विचार बार बार चोट करने लगा, जिसका जिक्र मैंने मेरे बग़ल में बैठे एक मित्र प्रवीण से किया।

  मैं - प्रवीण तुमने एक बात पर गौर किया।

  प्रवीण - क्या ?

  मैं - हम आये, हमने श्रम दान किया,सफाई की गंदे पन्नी, कपड़े और न जाने क्या- क्या अपने हाथों से उठाया।

  प्रवीण - हाँ। ?

  मैं - उसके बाद मंदिर गये और अब भोजन कर रहे है।

  प्रवीण - हाँ।

  मैं- हमने भी तो वही काम किया न जो सड़को पे झाड़ू लगाने वाले स्वीपर करते हैं ?

  प्रवीण - हाँ।

  मैं - उसके बाद हम बिना स्नान किये मंदिर चले गये। पर क्या हम लोग उनको ऐसा करने देते है ? क्या उनको छूते हैं ?

  प्रवीण - नहीं।

  मैं - क्यों? क्योंकि हमने श्रमदान का महान काम किया तो हम महान है,समाजसेवी है और वो अछूत?

  इस घटना ने एक बात तो साफ कर दी थी कि अस्पृश्यता, छुआछूत जेसी कोई चीज नही होती, यह केवल एक मानसिक विकार है जो हमे आगे बढ़ने नही देता, समाज के लोगों में आपसी समरसता फैलने नही देता। आज आवश्यकता है तो इस "मानसिक अस्पृश्यता" को समाप्त करने की।

-सूर्यकांत चतुर्वेदी

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